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Sampurn Rigved Bhasha Bhashya Vol 1-4

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Description

ऋग्वेद का परिचय

ऋग्वेद, जिसे हिन्दू धर्म का सबसे प्राचीन ग्रंथ माना जाता है, भारतीय साहित्य और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह चार वेदों में से एक है । ऋग्वेद का मूल स्वरूप मन्त्रों  के रूप में है, जो भक्ति, ज्ञान और विज्ञान का एक उत्कृष्ठ समन्वय प्रस्तुत करते हैं। ऋग्वेद के विशिष्ट मन्त्रों में प्राकृतिक तत्वों, देवताओं और मानवता के बीच एक गहन संबंध का वर्णन मिलता है, जो उसकी गूढ़ता और प्रासंगिकता को दर्शाता है।

ऋग्वेद का मुख्य उद्देश्य जीवन के विविध पहलुओं की व्याख्या करना है, जिसमें आध्यात्मिक, दार्शनिक और सामाजिक तत्व शामिल हैं। इसके मन्त्रों में ऋषियों द्वारा दी गई उपदेशों और प्रार्थनाओं का समावेश है, जिन्हें सुनकर भक्ति की प्रेरणा मिलती है। इसके मन्त्रों का भाषा संरचना पर गहरा प्रभाव है, जो संस्कृत व्याकरण का एक समृद्ध उदाहरण प्रस्तुत करता है। ऋग्वेद की भाषा न केवल सामयिक है बल्कि इसकी प्रतीकों, ध्वनियों और अर्थों द्वारा एक गहन स्मृति जागृत करने की क्षमता भी रखती है।

ऋग्वेद की अध्ययन की गहराई हमें यह समझने में मदद करती है कि प्राचीन भारतीय समाज की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएँ किस प्रकार विकसित हुईं। यह ग्रंथ न केवल हिन्दू धर्म के अनुयायियों के लिए, बल्कि समग्र मानवता के लिए भी एक अमिट धरोहर है। इसके मन्त्रों और ग्रंथ में प्रदर्शित विचार, समय के साथ-साथ अन्य संस्कृतियों और धार्मिक विचारों में भी समाहित होते चले गए हैं। इस प्रकार, ऋग्वेद केवल एक ग्रंथ नहीं है, बल्कि एक विचारधारा और जीवन के गूढ़ रहस्यों की खोज का प्रतीक भी है।

महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन और योगदान

महर्षि दयानंद सरस्वती, जो भारतीय समाज में एक प्रमुख धार्मिक विचारक और सुधारक के रूप में पहचाने जाते हैं, का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा गाँव में हुआ। उनका असली नाम दयानंद था, और वे अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही धार्मिक और आध्यात्मिक अध्ययन में रुचि रखने लगे। वेदों के प्रति उनकी गहरी आसक्ति ने उन्हें एक अद्वितीय दृष्टिकोण विकसित करने के लिए प्रेरित किया, जिसने आगे चलकर उनके विचारों में अभिव्यक्ति पाई।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने जीवन में कई सामाजिक सुधारों का कार्य किया। उन्होंने धार्मिक अंधविश्वास और जातिवाद के खिलाफ शंखनाद किया, और समाज में समरसता स्थापित करने की दिशा में कई प्रयास किए। उन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की, जिसका उद्देश्य वेदों की शिक्षाओं को पुनर्जीवित करना और भारत में आधुनिकता को लाना था। इस समाज ने शिक्षा, समानता और सुधारक विचारधाराओं को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय समाज में एक नई चेतना जागृत हुई।

उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ है, जिसमें उन्होंने वेदों के वास्तविक अर्थों की व्याख्या की और अंधविश्वास को खारिज किया। इस पुस्तक के माध्यम से, दयानंद ने निरंतरता के स्थान पर प्रमाणिकता को प्राथमिकता दी, जिससे वेदों के प्रति श्रद्धा को नई दिशा मिली। उन्होंने हिन्दू धर्म की जड़ों को समझाने का प्रयास किया और यह संदेश दिया कि सभी धार्मिक ग्रंथों का मूल सत्य एक ही है। उनके विचारों ने अनेक सुधार आंदोलनों को प्रेरित किया और आज भी उनके योगदान को एक सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है।

ऋग्वेद का भाष्य: दयानंद सरस्वती की दृष्टि

महर्षि दयानंद सरस्वती ने ऋग्वेद का भाष्य करने में एक नवीन दृष्टिकोण अपनाया, जिसने भारतीय दर्शन और संस्कृति के संदर्भ में वेदों की मूल भावना को उजागर किया। उनकी व्याख्याओं ने यह संकेत दिया कि ऋग्वेद केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक जीवन दर्शन का आधार है। दयानंद सरस्वती ने वेदों को उस समय की सामाजिक और साहित्यिक बुराइयों के खिलाफ एक सशक्त प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया और स्पष्ट किया कि कैसे वेद मानवता की भलाई के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते हैं।

दयानंद की दृष्टि से ऋग्वेद का भाष्य न केवल धार्मिक अर्थ में, बल्कि नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने वेदों में निहित ज्ञान को मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज सेवा से जोड़ा। वेदों की इस व्याख्या ने उन्हें उस समय के समाज में एक जागरूकता लाने का माध्यम बनाया, जिसमें उन्होंने अंधविश्वास और धर्मांधता के खिलाफ आवाज उठाई। दयानंद का यह मानना था कि वेदों का सही ज्ञान समाज को एकजुट और सशक्त बनाने में मदद कर सकता है। उनकी व्याख्याओं ने लोगों को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित किया।

आधुनिक संदर्भ में, दयानंद सरस्वती के भाष्य ने भारतीय संस्कृति में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उनकी शिक्षाओं ने विवेक, तर्क और वैज्ञानिक चिंतन को प्रोत्साहित किया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वेदों का अध्ययन केवल धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसे सामाजिक सुधार और व्यक्तिगत विकास के लिए एक उपकरण के रूप में देखा जाना चाहिए। इसलिए, उन्हें आज के युग में भी एक प्रेरणा स्रोत माना जाता है, जो हमें वेदों के गहन अर्थों को समझने और अपने जीवन में उन्हें लागू करने की प्रेरणा देते हैं।

दयानंद सरस्वती के विचार और आज का समाज

महर्षि दयानंद सरस्वती के विचार वर्तमान समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनके द्वारा स्थापित सामाजिक और धार्मिक सिद्धांतों ने भारतीय संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है। दयानंद ने सत्य, स्वावलंबन और स्वतंत्रता के आदर्शों को बढ़ावा दिया, जिन्हें आज के समाज में महत्वपूर्ण माना जाता है। उनका विचार था कि मनुष्य को धार्मिक अंधविश्वास से दूर रहना चाहिए और सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए।

आज के युवा जो तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में रह रहे हैं, दयानंद सरस्वती के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता महसूस कर सकते हैं। उनकी विचारधारा ने न केवल धार्मिकता को, बल्कि सामाजिक समानता और न्याय को प्रोत्साहित किया। युवाओं के दृष्टिकोण में उनकी शिक्षाएं इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं कि वे वर्तमान चुनौतियों जैसे कि भेदभाव, असमानता और अनैतिकता के खिलाफ स्पष्टता प्रदान करती हैं।

दयानंद सरस्वती के विचारों में ध्यान और साधना पर जोर दिया गया है, जो कि आज के तनावपूर्ण जीवन में मानसिक शांति प्रदान कर सकते हैं। उनका धर्म-निर्माण का दृष्टिकोण, जिसमें समाज के सभी वर्गों के लिए समान अवसरों का निर्माण करना शामिल है, आज के समय में अत्यंत प्रासंगिक है। विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में उनकी विचारधारा का योगदान हमें सामाजिक जागरूकता और नारी शिक्षा जैसी आवश्यक पहलों को आगे बढ़ाने में सहायता कर रहा है।

इस प्रकार, दयानंद सरस्वती के विचार न केवल ऐतिहासिक महत्व रखते हैं, बल्कि वे आधुनिक समाज में भी नैतिक और आध्यात्मिक दिशा प्रदान करने का कार्य कर रहे हैं। उनके सिद्धांतों के संदर्भ में नया दृष्टिकोण उत्पन्न करना, युवा पीढ़ी को सशक्त बनाने का एक प्रभावशाली माध्यम बन सकता है।

निष्कर्ष: ऋग्वेद और दयानंद सरस्वती का समन्वय

ऋग्वेद, भारतीय संस्कृतियों का अनमोल ग्रंथ, न केवल उच्चतम ज्ञान का स्रोत है, बल्कि यह जीवन के विभिन्न पहलुओं को भी समाहित करता है। महर्षि दयानंद सरस्वती ने ऋग्वेद के अध्ययन और उसके यथार्थ अर्थों को उजागर करने का कार्य किया। उनके भाष्य ने वेदों की प्रासंगिकता को नए तरीके से स्थापित किया, जिससे आज की पीढ़ी तक वेदों की गहरी समझ और ज्ञान पहुंचना संभव हुआ।

दयानंद सरस्वती के अनुसार, ऋग्वेद का उद्देश्य मानवता के उत्थान और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति करना है। उन्होंने वेदों के तात्त्विक ज्ञान को सरल भाषा में प्रस्तुत किया, जिससे आम जनमानस भी वेदों के महान विचारों को समझ सके। उनका प्रयास केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि सामाजिक रूप से जागरूकता और शिक्षण का एक माध्यम भी था। उनके योगदान से ऋग्वेद की अप्रकाशित गहराइयों का पता चला, जो वर्तमान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भविष्य में ऋग्वेद और दयानंद सरस्वती के विचारों का समन्वय शिक्षा, शोध और विकास के नए द्वार खोलेगा। यह समन्वय हमें उन मूल्यों की याद दिलाता है जो समय के साथ महत्वपूर्ण बने हैं। जागरूकता और नवाचार से, हम वेदों के महत्व को समझ सकते हैं और इसे भविष्य के संदर्भ में लागू कर सकते हैं। दयानंद सरस्वती के दृष्टिकोण से, ऋग्वेद का अध्ययन न केवल धार्मिक अध्ययन है, बल्कि एक समग्र जीवन दृष्टिकोण को भी दर्शाता है। इस प्रकार, ऋग्वेद और दयानंद सरस्वती का कार्य एक-दूसरे के पूरक हैं, जो सामाजिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक होते हैं।

Additional information

Weight 6000 g
Dimensions 24 × 15 × 16 cm

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