Nyay-Vyavastha Visheshanka
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वेदवाणी के छियासठवें वर्ष का प्रारम्भ ‘न्याय-व्यवस्था’ विशेषाङ्क से
Description
वेदवाणी के छियासठवें वर्ष का प्रारम्भ ‘न्याय-व्यवस्था’ विशेषाङ्क से किया जा रहा है। यह विषय प्राणिमात्र से सम्बन्धित है। क्योंकि जिस देश, समाज व परिवार की न्याय-व्यवस्था जितनी सुदृढ होगी, वह देश, समाज व परिवार उतना ही उन्नत व खुशहाल होगा। सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो प्राणिमात्र के साथ ही नहीं अपितु अपने साथ भी न्याथ व अन्याय करता है। सृष्टि को देखने से भी यह बोध होता है कि प्रत्येक प्राणी के साथ न्याय होना चाहिए। इसलिये प्रकृति के सम्पूर्ण पदार्थ सभी प्राणियों को समान रूप से उपलब्ध होते हैं। यथा- वायु, जल, धूप इत्यादि।
न्याय क्या है ?-
प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः –
अर्थात् साक्ष्यों के द्वारा उचित अनुचित (सत्य-असत्य) का निर्णय करके देश व समाज की मर्यादा के विपरीत जो व्यक्ति आचरण करता है। उसके सुधार हेतु शिष्ट लोगों के द्वारा निर्धारित जो दण्ड दिया जाता है वह न्याय है, अन्यथा अन्याय।
रूप से उपलब्ध होती थी। जिस व्यक्ति को जितनी आवश्यकता होती वह उतनी ग्रहण करता था। तत्पश्चात् शनैः शनैः मनुष्य में परिग्रह की प्रवृत्ति होने लगी यथा व्यक्ति ने विचार किया मुझे अमुक वस्तु के लिये प्रतिदिन जाना पड़ता है, अतः एक, दो, दश या उससे भी ज्यादा दिन के लिये इसका संग्रह कर लूं, जिससे पुनः पुनः जाना नहीं होगा। इस प्रकार व अपना आधिपत्य समझने लगा ये मेरा है, इतनी भूमि मेरी है। दूसरा भी इसी प्रकार समझने लगा। इससे विवाद होना प्रारम्भ हो गया। जब विवाद बढ़ा तो न्याय की आवश्यकता पड़ी, जो (न्याय) शनैः शनैः आज यहाँ तक पहुंच गया है।
प्राचीन न्याय-व्यवस्था प्राचीन काल
में न्याय-व्यवस्था का सम्पूर्ण दायित्व मुख्यरूप से राजा का ही होता था। राजा न्यायज्ञाता विद्वानों और मन्त्रियों के साथ मिलकर किसी विवाद का निर्णय करता था। वेद मन्त्र में भी इसी प्रकार वर्णन मिलता है।
श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिः देवैरग्ने सयावभिः। आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रोऽअर्यमा प्रातर्यावाणोऽध्वरम्॥
Additional information
Weight | 200 g |
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Dimensions | 22 × 17 × 1 cm |
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