Jigyasa samadhan
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मानव स्वभाव से अधिक जिज्ञासु है। बाल्यावस्था की जिज्ञासा देखते ही बनती है। आयु के साथ मात्र जीवन जीने के विषयों तक जिज्ञासा सीमित नहीं रहती, वह भूत व भविष्य पर अधिक केन्द्रित होने लगती है, वह भौतिक वस्तुओं से आगे बढ़कर सूक्ष्म-अभौतिक, आध्यात्मिक विषयों पर होने लगती है। जिज्ञासा को उचित उपचार न मिले तो वह निराश करती है, जिज्ञासा भाव समाप्त होने लगता है। वैदिक धर्म में जिज्ञासा करने व उसका समाधान करने की परम्परा सदा बनाये रखी गई है। महर्षि दयानन्द व आर्य समाज ने इसका सदा पोषण किया है, इसे प्रोत्साहित किया है।
महर्षि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी ‘परोपकारिणी सभा’ की पत्रिका ‘परोपकारी’ भी इसमें सहयोग करती रहती है। पाठकों की जिज्ञासाएँ आती रहती हैं, उनका समाधान भी ‘परोपकारी’ पत्रिका के द्वारा किया जाता है। इसी क्रम में मैंने भी कुछ का समाधान लिखने का कार्य प्रसन्न्ता से किया। जैसे-जैसे प्रश्न-जिज्ञासाएँ आती गई वैसे-वैसे परोपकारी में समाधान छपते रहे। पाठकों-जिज्ञासुओं की मांग हुई कि इन्हें पुस्तक रूप में संकलित कर दिया जाए तो सब एक साथ मिल सकेगा, पुराने भी पुनः सरलता से देख सकेंगे और नयों के लिए तो विशेष सुविधा व उपयोगिता होगी ही। अतः अब इन्हें पुस्तक रूप में स्वाध्याय प्रेमियों जिज्ञासुओं को अर्पित किया जा रहा है।
Additional information
Weight | 420 g |
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Dimensions | 22 × 14 × 2 cm |
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