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Aitareya Brahmana
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वेद विश्वसाहित्य के प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। मानवसंस्कृति के प्राचीनतम रूप तथा विकास को समझने के लिए वेदों का परिशीलन अपरिहार्य है। मानवजाति के इतिहास के ज्ञान के लिए, भारतीय संस्कृति को समझने के लिए और भाषा- वैज्ञानिक गुत्थियों को सुलझाने के लिए वेदों का अध्ययन आवश्यक माना जाता है। वेद भारतीय सभ्यता और संस्कृति की अमूल्य निधि है, जो आज भी वैज्ञानिक उपलब्धियों के बीच अपने ज्ञान-गौरव की अक्षुण्णता का निर्बाध रूप से उद्घोष कर रहे हैं। वेदों के ही आधार पर भारतीय दार्शनिक, धार्मिक तथा सामाजिक ज्ञान के भव्य प्रासाद को प्रतिभासम्पन्न वाक् शिल्पियों ने खड़ा किया है। अत एव वेदों का अनुशीलन तथा उनके मौलिक सिद्धान्तों और तथ्यों का उद्घाटन ज्ञान के संवर्धन एवम् उन्नयन के लिए विशेष उपयोगी है। वेद शब्द का प्रयोग मन्त्र तथा ब्राह्मण के लिए प्रयुक्त किया जाता है। आपस्तम्ब ने अपने ‘यज्ञ परिभाषा’ ‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्’ में मन्त्रभाग तथा ब्राह्मणभाग का नाम वेद बतलाया है। ब्राह्मण वेद का वह भाग है जो विविध यज्ञादि के विषय में मन्त्रों के विनियोग तथा उनकी विधियों का प्रतिपादन करता है, साथ ही उनके मूलभाग तथा विवरणात्मक व्याख्या को आख्यानों-उपाख्यानों के रूप में विद्यमान तत्सम्बन्धी निदर्शनों के साथ प्रस्तुत करता है। ऋग्वेदीय ऐतरेयब्राह्मण के कर्ता महीदास माने जाते हैं, भाष्यकार सायण ने अपने भाष्य के प्रारम्भ में एक कथानक दिया है जिसके अनुसार इनकी माता का नाम इतरा था। इसी कारण ये महीदास ऐतरेय कहे जाते थे और इन्हीं के नाम पर इसका नाम ऐतरेयब्राह्मण हुआ । ऐतरेयब्राह्मण में ४० अध्याय है, प्रत्येक ५ अध्यायों की एक पञ्चिका मानी गयी है, इस प्रकार इसमें ८ पञ्चिकाएँ हैं। प्रत्येक पञ्चिका को कण्डिकाओं में बाँटा गया है और कुल २८५ कण्डिकाएँ हैं। इस ब्राह्मण में यज्ञ के होता नामक ऋत्विज्ञ के क्रिया- कलापों का विशेष-रूप से वर्णन है। प्रथम, द्वितीय पञ्चिकाओं में ‘अग्निष्टोम’ में होता की क्रियाओं का वर्णन है, तृतीय-चतुर्थ पञ्चिका में प्रातः सवन, माध्यन्दिनसवन और सायंसवन के समय प्रयोग में आने वाले शस्त्रों का वर्णन है और अग्निष्टोम की उक्थ्यादि विकृतियाँ सङ्केप में दर्शायी गयी है, पञ्चम में द्वादशाह यज्ञों तथा षष्ठ में अधिक काल तक चलने वाले यज्ञों में होता और उसके सहायकों के कार्य दर्शाये गये हैं। सप्तम में राजसूय यज्ञ और अष्टम पश्चिका में ऐन्द्रमहाभिषेक तथा उसके आधार पर होने वाले राज्याभिषेक एवं पुरोहित का महत्व दर्शाया है। इसी पश्चिका में ३३थों अध्याय शुनःशेपोपाख्यान है। इस ब्राह्मण में ‘चरैवेति’ का सर्वोत्तम उपदेश दिया गया है। ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ के कई संस्करण प्रकाश में आये हैं जो संस्कृत भाषा के माध्यम से वेद का अध्ययन करने वाले के लिए महदुपयोगी हैं, किन्तु हिन्दी भाषा के माध्यम से अध्ययन करने वाले के लिए दुःसाध्य हैं। अतः हिन्दीव्याख्या के साथ इस ग्रन्य का संस्करण तैयार करने के लिए श्रद्धेय गुरुचरण डॉ० जमुनापाठक, सेवानिवृत्त संस्कृत विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने योजना बनाया। उन्होंने इस ब्राह्मण को पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्द्ध दो भागों में बाँटकर पूर्वार्द्ध पर व्याख्या लिखने का आदेश दिया। अक्षम होते हुए भी मैं इस कार्य को उनका आशीर्वाद मानकर स्वीकार कर लिया और लेखन कार्य में संलग्न हो गया। ग्रन्थ की गूढ़ गुत्थियों को उन्हीं गुरुचरणों के सानिध्य में उन्हीं की कृपा से समझ सका हूँ। उन्हीं के आशीर्वाद से व्याख्या का यह कार्य पूर्ण हो सका है, अतः मैं उनका आजीवन ऋणी रहूँगा। प्रस्तुत व्याख्या अपने उद्देश्य में कितनी सफल होगी, यह तो सुधीजन ही विचार करेंगे। इस व्याख्या को तैयार करने में अन्य जिन विद्वानों के ग्रन्थों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहायता प्राप्त हो सकी है, उन सबके प्रति नतशिरसा कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
Categories: चौखम्बा प्रकाशन, डॉ. जमुनापाठकः, ब्राह्मण ग्रन्थ
Additional information
| Weight | 1553 g |
|---|---|
| Dimensions | 22 × 14 × 8 cm |
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