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Arth Sangrah

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भारतीय दर्शन की उत्पत्ति जिज्ञासा से हुई है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में प्रचलित सभी चिन्तन धाराओं के ‘उत्स’ वेद में विद्यमान है। जो आगे चलकर भारतीय दर्शन शास्त्र के इतिहास में पुष्पित एवं पल्लवित हुए। वस्तुस्थिति तो यह है कि जीव, जगत् और परम शक्ति तत्त्व, परमेश्वर को आधार बनाकर ही किया गया चिन्तन ‘दर्शन’ शब्द की संज्ञा को प्राप्त हुआ।
भारतीय षड् दर्शनों में मीमांसा दर्शन ने वेदों में प्रतिपादित यज्ञयागों को ही धर्म की संज्ञा प्रदान करके वेदों को, उनके वाक्यों को पद-पद पर प्रामाणिक मानकर प्रत्येक दृष्टि से इन्हें मार्ग दर्शक बताया। आचार्य जैमिनि ने इस दर्शन के सिद्धान्तों को आधार बनाकर विधिवत् मीमांसा शास्त्र का प्रणयन किया। इसका यह अर्थ भी नहीं कि उन्होंने ही इस शास्त्र की नींव रखी हो, हाँ इतना अवश्य है कि उनका आविर्भाव सूत्रकाल में हुआ और उन्होंने अपने पूर्व के आचार्यों के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं को आधार बनाकर सूत्ररूप में जिस ग्रन्थ की संरचना की, वही आगे चलकर ‘मीमांसा सूत्र’ के रूप में विद्वानों के मध्य समादृत हुआ।
तत्पश्चात् प्रकरण ग्रन्थों की परम्परा में आचार्य लौगाक्षिभास्कर ने आचार्य जैमिनि के ग्रन्थ को आधार बनाकर सरल रूप में ‘बालानां सुखबोधाय’ ‘अर्थ-संग्रह’ नामक सरल ग्रन्थ की रचना की। प्रायः यह देखा जाता है कि जिस समय किसी भी साहित्य की सृष्टि होती है तो वह ‘सुगम’ रहता है, किन्तु कालान्तर में अनेक कारणों से उसकी क्लिष्टता में वृद्धि होती जाती है तथा इसकी क्लिष्टता व दुरुहता को दूर करने के लिए उसी साहित्य की व्याख्या के रूप में तत्सम्बद्ध अन्य साहित्य की संरचना अनेकानेक विद्वानों द्वारा की जाती है।

Additional information

Weight 420 g
Dimensions 22 × 14 × 3 cm

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