Presentation of Vedic Literature Brahmasutrashankarbhashyam
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वेद भारतोय संस्कृति-धर्म तथा दर्शनके प्राण है। भारतीयसंस्कृतिमें जो भी जीवनशक्ति दुनोचर होती है उसका मूलकारण वेद है। वेद ज्ञानका अक्षय महासागर है। जिससे ज्ञानरूपी कोच उड-उठकर प्रत्येक प्राणीके मानस भूमिको प्लावितकर अज्ञान जन्य तापको शान्तकर उसका जीवन सुखमय कर देते हैं। यह केवल भारतीय साहित्यके सर्व प्रथम ग्रन्थ नहीं प्रत्युत मानवमात्र के इतिहास में सर्वप्रथम ग्रन्थरत्न है। ऐसा पाश्चात्य विद्वानोंने मी स्वीकार किया है। वेदको पूर्व और उत्त मोमांसा दर्यानकार अपौरुषेय कहते हैं। मानवधर्म तथा तत्त्वज्ञानका यही उद्गमस्थान है। धर्म, अर्थ, काम कऔर मोक्ष इस चतुर्विध पुरुषार्थकी प्राप्तिका सही साधन वेदमें ही उपलब्ध होता है। इष्ट प्राप्ति तथा अनिष्ट परिहारके अलौकिक उपायोंका केन्द्र वेद ही है। प्रत्येक दार्शनिकने स्वमतको प्रमाणित करनेके किए वेन केन प्रकारेण वेदका ही सहारा लिया है। ‘मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः’ (आप० परि० ३१) (बेदके दो विभाग हैं- मन्त्र और ब्राह्मण) देवताविशेषकी स्तुतिमें प्रयुक्त होनेवाले अर्थ स्मारक काल्यको मन्त्र तथा यज्ञानुष्ठानादिका विस्तारपूर्वक वर्णक ग्रन्थको ब्राह्मण कहते हैं। मन्त्रसमुदायको संहिता भी कहते हैं। ऋक्, साम, यजु और अथवं भेदसे सहिताएँ चार हैं। यह संहिता विभाग महर्षि वेदव्यासने यज्ञ आदि आवश्यकताओं को दृष्टिमें रखकर किया है। संहिता एवं ब्राह्मणात्मक वेदके कान्तिम भाग उपनिषद् हैं। जिनमें अध्यात्मविषयक गम्भीर विवेचन है। उपनिषद्को ही वेदान्त कहते हैं, क्योंकि वे वेदके अन्तिम भाग हैं। अतः वे (वेद अन्त) कहलाते हैं तथा इनमें वेदोंके निवड प्रतिपाद्य सिद्धान्त होनेसे ये वेदान्त कहलाते हैं। उपनिषद् शब्द ‘उप’ तथा ‘नि’ उपसर्ग एक ‘सद्नु’ धातुसे ‘क्विप्’ प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है ‘सद्’ धातुके तीन अर्थ हैं- विशरण- नाया, गाति-प्राप्ति और अवसादन-शिथिलीकरण। जिस ब्रह्मविद्यासे दृष्टानुश्रविकविषयोंसे वितृष्ण मुमुक्षु जनोंकी संसारकी बीजभूत अविद्या नष्ट हो जाती है, जो ब्रह्मविद्या प्रत्यगभिन्न ब्रह्मस्वरूपकी प्राप्ति करा देती है तथा जिससे गर्भवासादि दुःख व्रातका शिथिलीकरण हो जाता है। भगवान् आद्य यदुराचार्यके इस व्याख्यानानुसार उपनिषद्का मुख्यार्थं ब्रह्मविद्या है, तत्वतिपादक होनेसे ग्रन्थमें भी उपनिषद् शब्दका गौण प्रयोग होता है। प्राचीनकालमें प्रत्येक वैदिकशाखाका अपना एक विशिष्ट उपनिषद् था। परन्तु दुर्देववश उनको पूर्णतः उपलब्धि नहीं होती ।
विषयकी दृष्टिसे वेदके तीन भाग हैं-कर्म, उपासना और ज्ञान। संहिता, ब्राह्मण तथा आरण्यकों में प्रधानतया कर्मादिका प्रतिपादन होनेसे उनका कर्म और उपासनामें अन्तर्भाव है। प्रधानतया ज्ञान- का विवेचन करनेके कारण उपनिषद् ज्ञानकाण्ड कहलाते हैं। भारतीयदर्शनके मूल सिद्धान्त उपनिषदोंमें ही अतिपादित हैं। कर्मादि प्रधान होनेपर भी संहिता आदिमें विपुल अध्यात्म रहस्य उपलब्ध होता है। उपनिषद् अस्थानत्रयीके अन्तर्गत प्रथम प्रस्थानके रूपमें गृहीत किये गये हैं। ‘ऋचां मूर्धानं बलुत्तमा साम्नां शिरोऽधर्वाणां मुण्डं मुण्डं नाधीतेऽधीते वेदमाहुस्तमज्ञं शिरश्छित्त्वा कुरुते ककन्न्। जो ऋग्वेदके मूर्धा, यजुर्वेदके उत्तमाङ्ग, सामवेदके सिर और अथवंदके मस्तकरूप उपनिषदोंका अध्ययन न कर शेष वेद भागका अध्ययन करता है उसे श्रेष्ठ पुरुष अज्ञानी कहते बह वेदका शिररछेदन कर उन्हें बिना सिरका घड़ (कबन्ध) बनाता है) इनमें ११ उपनिषद् बड़े महत्त्वके हैं। इनपर बाचार्य शकुरका भाष्य तथा उनके अनुयायिपोंकी व्याख्याएँ हैं। छान्दोग्य और वृद्दारण्यक तो एक ऐसी रणस्थली हैं जहाँ भगवान् भाष्यकारकी लोह लेखनीने खुलकर अपनी बजेय शाक्तिका परिचय दिया है- मतृप्रपञ्च जैसे जरठ वेदान्तियोंकी खूब खबर ली है। आचार्य शङ्करके इन दोनों उपनिषदोंके भाध्यका अध्ययन आवश्यक है।
Additional information
Weight | 1271 g |
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Dimensions | 25 × 17 × 4.5 cm |
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