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वेद ऋषियों की आप्तावस्था की वाणी है। उसमें ऋग्वेद विश्ववाङ्मय के इतिहास में सर्वप्राचीन ग्रन्थ है। वेदमन्त्रों के अर्थनिर्धारण की परम्परा ब्राह्मणग्रन्थों के रचना-काल से ही प्रारम्भ हो गयी थी। मन्त्रों के विनियोग और प्रमुख पदों के निर्वचन द्वारा उनके अर्थनिर्धारण की प्रक्रिया ब्राह्मणग्रन्थों में स्थल-स्थल पर दृष्टिगोचर होती है। जैसे-‘यद् अवृणोत् तद् वृत्रस्य वृत्रत्वम्-इति विज्ञायते’ ‘यदवर्धत तद् वृत्रस्य वृत्रत्वम्-इति विज्ञायते’ इत्यादि। इस प्रकार ब्राह्मणग्रन्थों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि ब्राह्मणकाल में ही पदों के निर्वचन द्वारा उनके अर्थनिर्धारण का कार्य प्रारम्भ हो गया था। परवर्ती काल में मन्त्रों के अर्थनिर्धारण के लिए उनके कठिन पदों के कोश के रूप में निघण्टु की रचना की गयी। तत्पश्चात् निघण्टु के पदों के निर्वचनपूर्वक अर्थनिर्धारण के लिए उनके व्याख्यान-स्वरूप निरुक्तग्रन्थ का प्रणयन प्रारम्भ हुआ ।

यास्क का निरुक्त इस विषय का आदि ग्रन्थ नहीं है। यास्क ने अपने निरुक्त में अपने से पूर्ववर्ती बारह निरुक्तकारों और उनके मतों का उल्लेख करके उनका समर्थन अथवा प्रत्यावलोचन के साथ अपने मत का स्थापन किया है। पूर्ववर्ती ग्रन्थ की अपेक्षा तद्विषयक परवर्ती ग्रन्थ का समृद्ध और परिपुष्ट होना स्वाभाविक है। यास्क के निरुक्त के विषय में भी यह सिद्धान्त पूर्णतः लागू हुआ है। यास्क का निरुक्त अन्य निरुक्तकारों के निरुक्तों से परवर्ती होवे के कारण उनकी अपेक्षा अधिक परिपुष्ट, गम्भीर तथा गूढ़ है। सम्भवतः इसी कारण पूर्ववर्ती निरुक्तकारों के निरुक्त उपेक्षित होकर कालकवलित हो गये अतः आज उपलब्ध नहीं है। यास्क का निरुक्त अभीष्ट वेदार्थ का परिज्ञापक होने के कारण वैदिक वाङ्मय में शिरमौर है।

इसमे निघण्टु में पठित कठिन वैदिक पदों के मूल को ढूढ़कर उनके अर्थनिर्धारण की प्रक्रिया का

विवेचन हुआ है। यास्क ने इसे व्याकरण का विद्यास्थान कहा है। वस्तुतः वैयाकरण पदों के

अर्थनिर्धारण के लिए उनके प्रकृतिप्रत्यय का व्याकरण करते हैं। इस प्रकार व्याकरण के अध्येता को भी निरुक्त का ज्ञान होना आवश्यक है, क्योंकि अर्थज्ञान के विना वह पदों के प्रकृतिप्रत्यय का उपयुक्त विश्लेषण नहीं कर सकता। व्याकरण तो केवल यौगिक पदों के ही विश्लेषण तक सीमित रह जाता है, अन्य पदों को अव्युत्पन्न मानकर उन्हें छोड़ देता है किन्तु निरुक्त अव्युत्पन्न पदों का भी मूल खोजकर उनका अभीष्टार्थ निर्धारण करता है। इस प्रकार निरुक्त आधुनिक भाषा-विज्ञान के प्रमुख अङ्ग अर्थविज्ञान का उद्‌गम स्थल है। आधुनिक भाषा-वैज्ञानिक पदों के अर्थनिर्धारण के लिए उसके मूल तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। इस क्षेत्र में हमारे मनीषी यास्क और उनसे भी पूर्ववर्ती नैरुक्त प्राचीनकाल में ही चिन्तन कर चुके हैं।

मन्त्र के पदों के अर्थनिर्धारण में उनके मूल को खोजने के लिए यास्क ने व्यापक क्षेत्र का उपयोग किया है। उनके अर्थनिर्धारण की प्रक्रिया केवल संस्कृत वाङ्मय तक ही सीमित नहीं है। उसमें संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत तथा स्थानीय, प्रादेशिक, दैशिक और वैश्विक भाषाओं में प्रयुक्त होने वाले पदों से भी मूल खोजा गया है। यास्क का कथन है कि कोई भी पद अव्युत्पत्र नहीं है उनका मूल किसी न किसी भाषा में अवश्य है। अज्ञान के कारण पदों को अव्युत्पन्न मानना

Additional information

Weight 890 g
Dimensions 22 × 14 × 6 cm

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