Paniniy Shiksha
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Description
वह समय सन् १६३३ ई. में वसन्तपञ्चमी का था जब १४१२ वर्षदेशीय हो कर मैंने अभिजित् मुहूर्त में उर्दू शिक्षा को तिलाञ्जलि दे कर अमरकोश से संस्कृत विद्या का ‘ॐ नमः सिद्धम् किया। उसी दिन से लगने लगा कि संस्कृत भाषा के उच्चारण की पद्धति सामान्य से पृथक्, अनेक अर्थों में विशेष है। प्रथमा उत्तीर्ण करने के पश्चात् जब अनुस्वार का परम्परागत उच्चारण सहसा प्राप्त हुआ तो मेरे पैर पृथ्वी से ऊपर उठ गये थे। फिर तो उच्चारण-सम्बन्धी भ्रान्तियाँ दूर होने लगीं और मैंने अपने गुरुवर आचार्य महावीर झा के उच्चारण को अपने लिये आदर्श माना क्योंकि उनमें मिथिला और काशी की अभिजात उच्चारण-परम्परा अमर हो कर जीवित थी। वे समय-समय पर अवसर निकालकर बताया भी करते थे। सन् १६४१-४२ में कुछ मास के लिए में काशी में रहने लगा, तब पूज्य पण्डित नारायणदत्त त्रिपाठी’ नृसिंह’ के चरणों में बैठकर प्रौढ-मनोरमा पढ़ने का सुयोग मिला। सन् १६४२ के फरवरी-मार्च में शास्त्री प्रथमखण्ड की परीक्षा समीप थी। मैंने गुरुवर नृसिंहजी से पाणिनीयशिक्षा के विषय में, कहीं मार्ग में चलते-चलते पूछा, तो उन्होंने भी मेरे प्रश्नों का समर्थन करते हुए उच्चारण की समस्या और वर्णमाला की सङ्घटना को दुरूह बताते हुए अपने अध्ययनकाल के संस्मरण सुनाये और कहा कि मैंने तभी पाणिनीयशिक्षा की प्रकाश टीका लिखी थी। तुम उसका क्रय कर लो तो काम चल जायगा। उन की वह पुस्तिका मुझे कठिनाई से मिल सकी, जिसे पढ़ कर कुछ संशयों का निराकरण अवश्य हुआ।
शिक्षा-वेदाङ्ग के उच्चारण सम्बन्धी विषय पर कुछ भी समझने का अधिक अवसर नहीं मिला, क्योंकि आचार्य आदि के करने के पश्चात् मैं सन् १६४६ से समूचे कार्यकाल में हिन्दी का शिक्षक रहा। सन् १६७० के आसपास सागर विश्वविद्यालय के ग्रन्धागार से ले कर मैंने ऋग्वेद-प्रातिशाख्य तथा शुक्लयजुर्वेद-प्रातिशाख्य पढ़े। मुझे विस्मय हुआ कि हमारे पूर्वज ऋषियों ने उच्चारण को बड़ा महत्त्व दिया था। तैत्तिरीय-प्रातिशाख्य तथा अथर्व-प्रातिशाख्य पर व्हिटने का अंग्रेजी भाष्य प्राप्त कर के मैं न केवल चकित रहा अपितु मेरा मन धिक्कार से भर गया कि मेरी अपेक्षा एक अमेरिकन विद्यार्थी अच्छा विद्यार्थी सिद्ध हो रहा था।
उन्हीं दिनों मेरे सखा डॉ. गङ्गाराम पाण्डेय सागर में मेरे साथ रह कर पीएच.डी. कार्य के लिए संस्कृत वर्णमाला पर अनुसन्धान करने आ पहुँचे। उनके साथ कुल मिला कर प्रायः एक वर्ष रहने और विचार करने का अवसर मिला। शिक्षा-वेदाङ्ग का विद्यार्थी होने की दृष्टि से डॉ. पाण्डेय के साथ बिताया हुआ समय मेरे लिए स्वर्णयुग था। हम दोनों ने मिलकर बहुत कुछ सीखा और सिखाया।
कहना न होगा कि प्रायः दो वर्ष पूर्व अपने प्रस्तुत ग्रन्थ के लिए जब कुछ सामग्री लेना हुआ तो मैं लखनऊ जाकर कई दिन डॉ. पाण्डेय के साथ रहा। उन्होंने अपना ग्रन्थ तथा अन्य सामग्री का समवधान कर दिया जिस का मैंने उपयोग कर के इस ग्रन्थ के परिशिष्ट लिखे ।
आज जब पाणिनीयशिक्षा का त्रिनयन भाष्य प्रकाश में आ रहा है तब मैं अपने भीतर एक प्रकार की स्निग्धता या आर्द्रता का अनुभव करता हूँ। श्री बालकृष्ण शर्मा ने बड़े श्रम से भाष्य का हिन्दी रूपान्तर किया जो दुरूह कार्य था क्योंकि शास्त्रीय संस्कृत को हिन्दी में लाना बड़े
Additional information
Weight | 225 g |
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Dimensions | 22 × 14 × 1 cm |
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