Punarjanm Samiksha Visheshank
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वेदवाणी के पैंसठवें वर्ष का प्रारम्भ ‘पुनर्जन्म समीक्षा’ विशेषाङ्क से
Description
वेदवाणी के पैंसठवें वर्ष का प्रारम्भ ‘पुनर्जन्म समीक्षा’ विशेषाङ्क से किया जा रहा है। यह ऐसा गम्भीर विषय है, जिसका ज्ञान मानव मात्र को होना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि इस पुनर्जन्म को जानने वाला व्यक्ति यदि अकरणीय कार्य में प्रवृत्त होता है, तो क्षण भर के लिये अवश्य मनन करता है कि यह कार्य पुनर्जन्म में बाधक होगा। मनुष्य जैसे भौतिक उन्नति में प्रतिदिन नवीन नवीन उपलब्धियों को प्राप्त कर रहा है, वैसे ही वो चाहता है कि मेरा अग्रिम जन्म वर्तमान जन्म से श्रेष्ठ हो।
हैं। महर्षि पतञ्जलि ने स्पष्टरूप से कहा है-
पुनर्जन्म क्या है ?- आत्मा का जब प्रकृति (पञ्चमहाभूतों से निर्मित शरीर) के साथ संयोग होता है तो उसे जन्म कहते हैं, वियोग को मृत्यु। वियोग के पश्चात् पुनः प्रकृति के साथ जीव का जो संयोग होता है, उसे पुनर्जन्म कहते हैं। ये प्रवाह से अनादि है। जन्म के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जन्म। किसी जीव के जन्म का प्रारम्भ और अन्त (मोक्ष) कब हुआ ये ठीक-ठीक प्रतिपादित करना अत्यन्त दुर्लभ है।
पुनर्जन्म है या नहीं ?- पुनर्जन्म ध्रुव सत्य
है, वह अवश्य ही होता है। इसी पर दृष्टिपात करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में बड़े सरल भाव से कहा है- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्भुवं जन्म मृतस्य च ।
गीता २.२६।।
अर्थात् – उत्पन्न हुए प्राणिमात्र की मृत्यु निश्चय है और मृत प्राणी का जन्म भी अवश्य होता है। इस तरह के अनेक प्रमाणों द्वारा पुनर्जन्म की नित्यता को विद्वानों ने इस विशेषाङ्क में प्रस्तुत किया है। अतः तनिक मात्र भी इसमें संदेह नहीं है कि बार-बार जन्म होता है।
पुनर्जन्म हेतु ?- पुनर्जन्म का कारण कर्मफल
सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भागाः।
योगदर्शन २.१३।।
अर्थात् – अविद्यादि क्लेशरूपी मूल कारण होने पर उसका परिपाकरूप फल, जाति (जन्म), आयु और भोग इन तीनरूपों में प्राप्त होता है। अतः कर्म ही पुनर्जन्म के मूल कारण हैं। प्रत्येक क्षण व्यक्ति मन, वाणी अथवा शरीर से कर्म करता रहता है। ‘न हि कश्चिद् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’ (गीता ३.५) विना कर्म किये कोई क्षण भर भी नहीं रह सकता। ये कर्म चार प्रकार के होते हैं- १. शुभ, २ अशुभ, ३. मिश्रित और ४. निष्काम। पूर्व तीनप्रकार के कर्म जब व्यक्ति करता है तो एक ‘अदृष्ट’ की उत्पत्ति होती है। इसी ‘अदृष्ट’ के कारण ब्रह्माण्ड में क्रियाएं हो रही हैं और यही पुनर्जन्म का हेतु है। पुनर्जन्म की निवृत्ति – उपर्युक्त चार प्रकार
के कर्मों में जब मनुष्य निष्काम (कामना रहित
कर्तव्य पूर्वक) कर्म करता है तो नवीन कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती। इसी विषय में भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
यस्य नास्ति अहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।।
गीता १८.१७।।
अर्थात् – जिस व्यक्ति के अन्तःकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव (विचार) नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों एवं कर्मों में आसक्त नहीं होती, ऐसा पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी न तो वस्तुतः मारता है और नहीं पाप-पुण्य से बन्ध ता है। प्रारब्ध शनैः शनैः समाप्त हो जाता है। जब कर्मफल ही नहीं रहता तो जन्म फिर किस निमित्त से हो, अतः जन्म भी नहीं होता, अपितु जीवन का – शेष पृष्ठ ५ पर देखें लक्ष्य-
Additional information
Weight | 231 g |
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Dimensions | 22 × 17 × 1 cm |
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