Satyarth Prakash Hardcover
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पाठकवृन्द ! आर्यसमाज के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द ने आपकी सेवा में प्रस्तुत ‘सत्यार्थप्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना करके मानव जाति का अवर्णनीय उपकार किया है। सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करना ही इस ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है, और यही सब सुधारों का मूल सूत्र है। अतः महर्षि ने इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है-“सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।” वह सत्य-उपदेश मनुष्यकृत अनार्ष ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होता जिस से मानव जीवन का कल्याण हो सके। हितकारी, प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण विषयों का अति सरलता से प्रतिपादन आर्ष ग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है। तृतीय समुल्लास में उल्लिखित आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन से लाभ और अनार्ष ग्रन्थों के अध्ययन से हानि पर अवश्य ध्यान देना चाहिए जो जिज्ञासु आर्ष ग्रन्थों में गोता लगाता है। वह अवश्य ही बहुमूल्य मोतियों को प्राप्त करके अपना जीवन सफल बना सकता है।
महर्षि की अनुपम रचना सत्यार्थप्रकाश का संक्षिप्त परिचय निम्न है-(१) इसी ग्रन्थ में ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्त ऋषि-मुनियों के वेद-प्रतिपादित सारभूत विचारों का संग्रह है। अल्प विद्यायुक्त, स्वार्थी, दुराग्रही लोगों ने जो वेदादि सच्छास्त्रों के मिथ्या अर्थ करके उन्हें कलंकित करने का दुःसाहस किया था, उन के मिथ्या अर्थों का खण्डन और सत्यार्थ का प्रकाश अकाट्य युक्तियों और प्रमाणों से इस में किया गया है। किसी नवीन मत की कल्पना इस ग्रन्थ में लेशमात्र नहीं है।
(२) वेदादि सच्छास्त्रों के अध्ययन विना सत्य ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं। उनको समझने के लिए यह ग्रन्थ कुञ्जी का कार्य करता है। इस समय इस ग्रन्थ के अध्ययन किये विना वेदादि सच्छास्त्रों का सत्य सत्य अर्थ समझना अति कठिन है। इस को पूर्णतया समझे विना बड़े-बड़े उपाधिधारी दिग्गज विद्वान् भी अनेक अनर्थमयी भ्रान्तियों से लिप्त रहते हैं।
(३) जन्म लेकर मृत्यु पर्यन्त मानव जीवन की ऐहलौकिक और पारलौकिक समस्त समस्याओं को सुलझाने के लिए यह ग्रन्थ एकमात्र ज्ञान का भण्डार है।
(४) ऋषि दयानन्द से पूर्ववर्ती ऋषियों के काल में संस्कृत का व्यापक रूप में व्यवहार था और वेदों के सत्य अर्थ का ही प्रचार था। उस समय के सभी आर्ष ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होते हैं। महाभारत के पश्चात् सत्य वेदार्थ का लोप और संस्कृत का अतिहास हुआ। विद्वानों ने अल्प विद्या और स्वार्थ के वशीभूत होकर जनता को भ्रम में डाला एवं मतवादियों ने बहुत से आर्ष ग्रन्थ नष्ट करके ऋषि-मुनियों के नाम पर मिथ्या ग्रन्थ बनाये। उन के ग्रन्थों में प्रक्षेप किया जिस से सत्यविज्ञान का लोप हुआ। उस नष्ट हुए विज्ञान को महर्षि ने इस ग्रन्थ में प्रकट किया है। महर्षि ने इस ग्रन्थ में बहुमूल्य मोतियों को चुनचुनकर आर्यभाषा में अभूतपूर्व माला तैयार की जिस से सर्वसाधारण शास्त्रीय सत्य मान्यताओं को
जानकर स्वार्थी विद्वानों के चंगुल से बच सकें ।
(५) महर्षि दयानन्द कृत ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश प्रधान ग्रन्थ है। इस में उनके सभी ग्रन्थों का सारांश आ जाता है।
(६) यह ही एक ऐसा ग्रन्थ है जो पाठकों को इस ग्रन्थ में प्रतिपादित सर्वतन्त्र, सार्वजनीन, सनातन मान्यताओं के परीक्षण के लिए आह्वान देता है।
(७) इसके पढ़े विना कोई भी आर्य ऋषि के मन्तव्यों और उनके कार्यक्रमों को भली प्रकार नहीं समझ सकता एवम् अन्यों के उपदेशों में प्रतिपादित मिध्या सिद्धान्तों को नहीं पहचान सकता। जिससे अनेक भ्रान्त धारणाएं मस्तिष्क में बैठ जाती हैं जिनके निराकरण के लिए इस ग्रन्थ का अनेक बार अध्ययन सर्वचा अनिवार्य है।
(८) इसके प्रारम्भ में’ त्वामेव प्रत्यक्ष ब्रह्म वदिष्यामि’ इत्यादि से जो प्रतिज्ञा की है उसी के अनुसार सम्पूर्ण ग्रन्थ में सत्यार्थ का प्रकाश करते हुए अन्त में प्रतिज्ञा का उपसंहार किया है।
(९) अत्यन्त समृद्धिशाली, सर्वदेशशिरोमणि भारत देश का पतन किस कारण से हुआ एवम् उत्थान किस प्रकार हो सकता है, इस विषय पर इस ग्रन्थ में पूर्ण प्रकाश डाला गया है।
(१०) इस में आर्यसमाज और मत-मतान्तरों के अन्तर को अनेक स्थानों पर एवम् एकादश समुल्लास में विशेष रूप से खोलकर समझाया गया है।
(११) मानव जाति के पतन का कारण मतवादियों की मिथ्या धारणाएं हैं जिनका खण्डन भी प्रमाण और युक्तिपूर्वक इस में किया गया है।
(१२) इसमें मूल दार्शनिक सिद्धान्तों को ऐसी सरल रीति से समझाया गया है कि जिसे पढ़कर साधारण शिक्षित व्यक्ति भी एक अच्छा दार्शनिक बन सकता है। जिस ने इस ग्रन्थ को न पढ़कर नव्य महाकाव्य अनार्ष ग्रन्थों के आधार पर दार्शनिक सिद्धान्तों को पढ़ा है उस की मिथ्या धारणाओं का खण्डन और सत्य मान्यताओं का मण्डन इस ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला सरलता से कर सकता है।
(१३) ऋषि के मन्तव्यों पर इस ग्रन्थ को पढ़ने से पूर्व जितनी भी शंकाएं किसी को होती हैं। वे सब इस के पढ़ने से समूल नष्ट हो जाती हैं क्योंकि उन सब शंकाओं का समाधान इसमें विद्यमान है।
(१४) वर्तमान में बने राजनीतिक दल पक्षपात से पूर्ण होने के कारण स्वयं सम्प्रदाय हैं। मतवादियों और उन में शब्दमात्र का भेद है, तत्त्वतः अभेद है। उनके द्वारा साम्प्रदायिकता की बहुत वृद्धि हुई है। इस ग्रन्थ में साम्प्रदायिकता के स्वरूप और उसकी हानियों का यथार्थ दिग्दर्शन है। साम्प्रदायिकता को समूल नष्ट करने के उपाय भी इस ग्रन्थ में बताये गये हैं किन्तु खेद है कि दल (सम्प्रदाय) पक्षपात-रहित, मानव के कल्याणकारक ऋषि के पूर्ण सत्य मन्तव्यों को भी साम्प्रदायिक कह कर सम्प्रदाय शब्द के अज्ञानतापूर्ण दूषित अर्थ का प्रचार कर नास्तिकता का प्रचार कर रहे हैं और ‘उलटा चोर कोतवाल को दण्डे’ वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।
Additional information
Weight | 656 g |
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Dimensions | 22 × 14 × 3 cm |
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