Vaidik Swar visheshank Bhag 1-2
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वैदिक ऋषि, देवता तथा छन्द विषयों पर ‘वेदवाणी’ अपने विशेषाङ्क आपकी सेवा में प्रस्तुत कर चुकी है।
Description
गुरुवर ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु ने श्री वीरेन्द्र शास्त्री जी के सहयोग से जिस ‘वेदवाणी’ रूपी पादप का आरोपण लगभग सन् १९४८ ई० में किया था, आप सभी सहृदय सुहृदों के सत्सहयोग से अपने उद्देश्य तथा लक्ष्य के अनुरूप पण्डित युधिष्ठिर जी मीमांसक तथा आचार्य विजयपाल जी विद्यावारिधि की सतत सारस्वत साधना से पल्लवित, पुष्पित, फलित होते हुए वह अब बहत्तर सफल शरद् पार करके तिहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस वर्ष का प्रथम अङ्क ‘वैदिक-स्वर-विशेषाङ्क’ के रूप में आपके करकमलों में विराजमान है। यह विशेषाङ्क एक वैदिक श्रृङ्खला के अन्तर्गत है। इससे पूर्व इस श्रृङ्खला में वैदिक ऋषि, देवता तथा छन्द विषयों पर ‘वेदवाणी’ अपने विशेषाङ्क आपकी सेवा में प्रस्तुत कर चुकी है।
रामलाल-कपूर-ट्रस्ट के द्वारा सञ्चालित सभी प्रकल्पों (विरजानन्द आश्रम, पाणिनि महाविद्यालय, वैदिक प्रका शन, वैदिक पुस्तकालय, वेदवाणी आदि) का एकमात्र उद्देश्य है, लक्ष्य है कि विश्व का प्रत्येक मानव-मानस ‘तन्मे मनः शिवस॑ङ्कल्पमस्तु’ (यजुः० ३४.१-६) का अनुपालन करते हुए ‘सं श्रुतेन॑ गमेमहि मा श्रुतेन॒ वि राधिषि।’ (अथर्व० १.१.४) को लक्ष्य में रखकर वेद के साथ साक्षात् जुड़े। क्योंकि वेद के साथ असम्बद्ध प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति नीतिकार के अनुसार ‘विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः’ वाली ही है। इसीलिए अतीन्द्रियविषयग्राही दूरद्रष्टा ऋषिवर देव-दयानन्द जी महाराज ने बलपूर्वक उद्घोषणा की थी- ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’ अतः इस शृङ्खला के अन्तर्गत वेदार्थ की गम्भीरता तक पहुंचने के साधनों पर सर्वाङ्गीण चिन्तन तलस्पर्शी विद्वानों के द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।
उदात्तादि तथा षड्जादि स्वर प्राणियों के द्वारा उच्चरित ध्वनि के धर्म हैं। इनके माध्यम से ही कोई वक्ता विभिन्न प्रकार के अर्थों को अलग-अलग देश-काल- परिस्थिति में स्पष्ट अभिव्यक्ति देने में समर्थ होता है। इस प्रकार स्वर ध्वनि का धर्म होते हुए अर्थ के साथ भी
साक्षात् सम्बद्ध है। स्वर की महत्ता को दृष्टिगत रखते हुए अनेक उदारधी विद्वन्मनीषियों ने लेखन में पर्याप्त उदारता से कार्य लिया है। अतएव उनके लेखों का कलेवर सामान्य से कहीं अधिक बड़ा हो गया है। चूंकि सभी लेख पर्याप्त परिश्रम तथा अनुसन्धान पूर्वक लिखे गये हैं। अतः स्वर- जिज्ञासुओं के लिए सभी लेख समुद्र-मन्थन से प्राप्त अमृत के तुल्य हैं। उपलब्ध सामग्री की अधिकता को देखते हुए इस स्वर-विशेषाङ्क को दो भागों में विभक्त किया जा रहा है जिसमें प्रथम-भाग आपके हाथों में है तथा द्वितीय- भाग अग्रिम मास दिसम्बर में आपके दृष्टिप्रसाद का पात्र बनेगा।
विषय के प्रतिपादन में कृपालु विद्वल्लेखकों ने- उदात्तादि स्वरों का सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक (लिप्यात्मक एवम् उच्चारणात्मक) स्वरूप, शब्दशास्त्र तथा स्वर-शास्त्र में विद्यमान स्वरप्रक्रिया, वैदिक तथा लौकिक शब्दोच्चारण में स्वर का महत्त्व, पदार्थ-ज्ञान में स्वर का महत्त्व, स्वर की उपेक्षा से अर्थ का अनर्थ, स्वरविषयक सिद्धान्तों का टीकाकारों द्वारा भ्रान्तिपूर्ण अन्यथा व्याख्यान का निवारण- समीक्षा, सूक्ष्म वेदार्थ-ज्ञान में स्वर का सामर्थ्य, षड्जादि स्वरों का स्वरूप तथा उनकी वैदिक-लौकिक अर्थज्ञान में महत्ता, उदात्तादि तथा षड्जादि स्वरों का परस्पर सम्बन्ध, इत्यादि विषयों पर प्रभूत प्रकाश डाला है।
जिन विद्वानों के लेख इस अङ्क में समाहृत नहीं हो सके वे कृपालु धीरोदात्त महानुभाव कृपया अग्रिम (दिसम्बर) अङ्क जो कि इसी विशेषाङ्क का उत्तरार्ध है, की प्रतीक्षा करें। अवशिष्ट सभी लेख उसमें प्रकाशित हो रहे हैं। अग्रिम अङ्क भी लगभग इसी आकार में होगा।
किसी भी रूप में वैदिक-क्षेत्र में संलग्न सभी स्वा- ध्यायशील सज्जनों के लिए ‘वेदवाणी’ की यह ‘वैदिक- विशेषाङ्क’- श्रृङ्खला सम्पूर्ण रूप में उपयोगी सिद्ध होगी। क्योंकि इस शृङ्खला में सूक्ष्म वेदार्थ ज्ञान की गम्भीरता तक पहुंचने के लिए अत्यन्त अनिवार्य साधन ऋषि, देवता, छन्द तथा स्वर का सम्पूर्ण विवेचन किया गया है। सुधी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि आप अपनी अनुकूल- प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं से हमें सम्बल प्रदान करें।
– प्रदीप कुमार शास्त्री
Additional information
Weight | 363 g |
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Dimensions | 24 × 17 × 2 cm |
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