Vaidic Rishi Visheshank
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‘वेदवाणी’ के इकहत्तरवें वर्ष के प्रथम अङ्क को वैदिक ऋषियों के लिए समर्पित ‘वैदिक ऋषि विशेषाङ्क’ के रूप में
Description
‘वेदवाणी’ के इकहत्तरवें वर्ष के प्रथम अङ्क को वैदिक ऋषियों के लिए समर्पित ‘वैदिक ऋषि विशेषाङ्क’ के रूप में आपके कर कमलों में समर्पित करते हुए महती प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है। वैदिक ऋषि से तात्पर्य है वह यथार्थ ज्ञान की समृद्ध परम्परा जिसने समस्त ज्ञान के भण्डार वेदों को परमात्मा से लेकर हम तक पहुंचाया। वास्तव में इस परम्परा का सान्निध्य दिग्भ्रमित का दिग्दर्शक है, मूल्यहीन जीवन को अमूल्य बनाने वाला है, सुख, आह्लाद एवम् आनन्द देने वाला है। इस परम्परा से उन्मुख होने का मतलब है सभी ओर से सभी का अधोमुख अधःपतन। और आज चारों ओर यही तो दृष्टिगोचर हो रहा है।
ऋषियों को लेकर विद्वज्जगत् में पर्याप्त मतभेद हैं। विशेषकर वैदिक ऋषियों के विषय में। इनमें मुख्य रूप से जो पक्षभेद उपलब्ध हैं, उनमें – मन्त्रकर्त्ता, मन्त्रद्रष्टा, ऐतिहासिक व्यक्तिविशेष, पदार्थविशेष, कविनिबद्ध (कल्पित) वक्ता, उपविषय, तत्त्वविशेष, उपाधि, प्रतीक, यौगिक आदि प्रमुख हैं। इन पक्षभेदों का आधार है वैदिक साहित्य में ऋषियों के उल्लेख अनेक प्रकार से उपलब्ध होना। जैसे-अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा आदि चार प्रथम ऋषि, समान आनुपूर्वी वाले किसी मन्त्र या सूक्त का भिन्न वेद में भिन्न ऋषि वाला होना, ऋषिनाम में द्विवचन या बहुवचन का उपलब्ध होना, अपत्य या गोत्रप्रत्ययान्त ऋषि शब्द की उपलब्धि, किसी मन्त्र/सूक्त के सैकड़ों/सहस्त्रों ऋषियों का निर्देश, एक या दो अथवा अनेक वैकल्पिक ऋषियों का निर्देश, अग्नि-यूप आदि जड़पदार्थों का ऋषिरूप में निर्देश, यक्ष्म- नाशन-भाववृत्त आदि कुछ भावों/क्रियाओं अथवा गुणों का ऋषिरूप में निर्देश, जलजन्तु/सरीसृप/पक्षी/पशु आदि का ऋषि-स्थान पर निर्देश, संवाद सूक्तों में ऋषि- देवता में परस्पर परिवर्तन, अग्नि-आदित्य आदि जड़ पदार्थों अथवा देवतावाची शब्दों का ऋषिरूप में निर्देश,
देवतावाची शब्दों का ऋषियों के तथा ऋषिवाची शब्दों का देवताओं के विशेषण के रूप में उपलब्ध होना, मन्त्र/सूक्त के ऊपर निर्दिष्ट ऋषि या देवता शब्द का उस मन्त्र के अंश के रूप मे उपलब्ध होना, बृहद्देवता तथा अनुक्रमणी-साहित्य में ऋषि-परिवारों का निर्देश, ब्राह्मण- ग्रन्थों तथा उपनिषदादि में ऋषिसम्बद्ध आख्यानों की उपलब्धि, ऋषिसम्बद्ध पौराणिक कथाएं, मन्त्र का अर्थ एवं विनियोगादि करते समय ऋषिज्ञान पर बलाधान, लगभग किसी भी भाष्यकार द्वारा मन्त्र का भाष्य करते समय उल्लेख पूर्वक ऋषि की उपयोगिता प्रदर्शित न करना, ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त ऋषि-परम्परा का उल्लेख, आदि। इस प्रकार इतनी सारी विषमताओं की उपलब्धि में किसी एक सिद्धान्त के द्वारा निर्णय करना लगभग असम्भव सा प्रतीत होता है।
इस विषय पर पहले भी अनेक आदरणीय आर्य विद्वानों ने गम्भीर अनुसन्धान किया है। उनमें – म० म० पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक (वैदिक सिद्धान्त मीमांसा), पण्डित धर्मदेव विद्यामार्त्तण्ड (वेदों का यथार्थ स्वरूप), डॉ० कपिलदेव शास्त्री (वैदिक ऋषि एक परिशीलन), श्री भगवद्दत्त वेदालङ्कार एम० ए० (ऋषि-देव-विवेचन, ऋषि-रहस्य), पण्डित भगवद्दत्त (वैदिक वाङ्मय का इतिहास) डॉ० ज्वलन्त कुमार शास्त्री (वेद और वेदार्थ), आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक विद्वानों/विदुषियों ने भी समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपने अनुसन्धानात्मक विचार प्रस्तुत किये हैं।
किसी उलझे विषय को असम्भव घोषित कर उलझा हुआ ही छोड़ देना बुद्धिमत्ता नहीं है। वाद- प्रतिवाद, लेखन-प्रतिलेखन चलता रहना चाहिए, क्योंकि ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’। इसी श्रृङ्खला में यह ‘वैदिक ऋषि विशेषाङ्क’ प्रस्तुत है। इस विशेषाङ्क में कृपालु विद्वानों ने ऋषि विषयक जो विवेचन दिया है,
Additional information
Weight | 229 g |
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Dimensions | 24 × 17 × 1 cm |
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