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Vedic Vivaah Paddhati

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वैदिक धर्म में संस्कारों का बड़ा महत्त्व है। मानव-जीवन को उच्च, दिव्य, महान् एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए महर्षि दयानन्द ने ‘संस्कारविधि’ में सोलह संस्कारों का विधान किया है। सभी संस्कार महत्त्वपूर्ण हैं, परन्तु उन सभी में विवाह- संस्कार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः यही वह संस्कार है जो अन्य सभी संस्कारों का आधार है। वर्त्तमान समय में संस्कारों की घोर उपेक्षा हो रही है। आज सोलह संस्कारों के स्थान पर दो-तीन संस्कार ही रह गये हैं और वे भी विधिपूर्वक नहीं कराये जाते । वर-वधूपक्ष के लोग तो खाने और खिलाने में ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, वही उनकी दृष्टि में मुख्य है, संस्कार गौण है। गौण ही नहीं, उनकी इच्छा तो यह होती है कि संस्कार किसी प्रकार ५-७ मिनट में ही समाप्त हो जाए। दूसरी ओर संस्कार करानेवाला पण्डित-वर्ग भी घास काटता है। पहले की क्रिया पीछे और पीछे की क्रिया पहले, उल्टे-सीधे मन्त्र बोल और क्रिया कराकर संस्कार समाप्त करा दिया जाता है। संस्कारों में विवाह-संस्कार सबसे लम्बा है। इसमें प्रक्रियाएँ भी बहुत हैं और अनेक प्रक्रियाओं के कारण इसमें जटिलता भी आ गई है। उस जटिलता को दूर करने के लिए ही हमने महर्षि दयानन्द-प्रणीत पद्धति की व्याख्या यहाँ प्रस्तुत की है। इस पद्धति में पीछे पृष्ठ उलटने की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक मन्त्र जितनी बार भी पद्धति में आया है, उसे उतनी ही बार यहाँ लिख दिया गया है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि पाठक एवं विद्वज्जन इसे उपयोगी पाएँगे। संस्कार में जितनी भी विधियाँ हैं, उन सबकी व्याख्या हमने विधि से पूर्व दी है। यहाँ दो बातों का निर्देश आवश्यक है। एक-क्या विवाह में पत्नी को वामाङ्ग में बैठाया जाए? दूसरे-परिक्रमा करते समय चलने का क्रम क्या हो, आगे कौन चले, वर या वधू ? दोनों प्रश्नों की मीमांसा यहाँ की जाती है- विवाह में पत्नी का स्थान विवाह में महर्षि दयानन्द ने पत्नी का स्थान सर्वत्र पति के दाहिनी ओर माना है। सर्वप्रथम मधुपर्क विधि के पश्चात् जब वर-वधू यज्ञशाला में प्रविष्ट होते हैं, वहाँ महर्षि लिखते “दोनों वर-वधू यज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणा करके कुण्ड के पश्चिम भाग में प्रथम स्थापन किये हुए आसन पर पूर्वाभिमुख वर के दक्षिणभाग में वधू और वधू के वामपक्ष में वर बैठ के वधू-‘ओं प्र मे पतियानः…….’ इस मन्त्र को बोले।” ‘लाजाहोम’ की विधि पूर्ण होने के पश्चात् ऋषि फिर लिखते हैं- “पश्चात् वर, वधू को दक्षिणभाग में रखके कुण्ड के पश्चिम में पूर्वाभिमुख बैठके वर- ‘ओं प्रजापतये स्वाहा’ – इस मन्त्र को बोलके नुवा से एक घृत की आहुति देवे।” विवाह-विधि पूर्ण होने के पश्चात् जब वर और वधू प्रस्थान करते हैं, वहाँ ऋषि लिखते हैं- ** और रथ में बैठते समय वर अपने साथ दक्षिणबाजू वधू को बैठावे।” इतना ही नहीं, महर्षि दयानन्द ने तो घर में पहुँचकर जो यज्ञ होता है वहाँ भी पत्नी को दक्षिणभाग में बैठाने का निर्देश किया है- “यज्ञकुण्ड के पश्चिमभाग में पीठासन अथवा तृणासन पर वधू को अपने दक्षिणभाग में पूर्वाभिमुख बैठावे।” महर्षि का यह विधान स्मृतियों के अनुसार ही है। यहाँ हम स्मृतियों के कुछ प्रमाण उद्धृत करते हैं-

Additional information

Weight 200 g
Dimensions 22 × 14 × 1 cm

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