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Yogeshwar krishna

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स्वर्गीय पं० चमूपति जी की कृति योगेश्वर कृष्ण नामक ग्रंथ को प्रकाशनार्थ हाथ में लेते हुए हमें अत्यन्त हर्ष हो रहा है। उसके दो कारण हैं : पहला कि यह ग्रंथरत्न चिरकाल से अनुपलब्ध था। पाठकवृन्द की ओर से इसके प्रकाशन की माँग यत्र-तत्र सुनी जाती थी। इसलिए संस्थान ने इसको प्रकाशित करना उचित समझा। दूसरा कारण यह भी था कि भारत राष्ट्र के जनमानस को इस प्रकार के सदाचार-शिक्षण की आवश्यकता है कि जिससे राष्ट्र का चारित्रिक स्तर ऊँचा उठे; उसे सदाचार की शिक्षा सत्पुरुषों के चरित्र-चित्रण से ही सम्भव है, और उन सत्पुरुषों में मानदण्ड की भाँति दो ही व्यक्ति आदर्श रूप हैं – एक पुरुषोत्तम राम और दूसरे योगेश्वर कृष्ण।
योगेश्वर ही क्यों ?
मन में यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि लोक में प्रचलित श्री कृष्ण के अनेक नामों में से आखिर योगेश्वर ही क्यों ? इसका समाधान हम इस प्रकार कर सकते हैं कि वर्तमान युग के उद्धर्ता महर्षि दयानन्द ने सदाचार-निर्माणार्थ जिस सत्पुरुष की गणना सर्वप्रथम की है वह योगेश्वर ही हैं। उन्होंने लिखा है- श्री कृष्ण का जीवन आप्त पुरुषों के सदृश है- देखो श्री कृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा और इस भागवतवाले ने अनुचित मनमाने दोष लगाए हैं, जिसको पढ़-पढ़ा सुन-सुना के अन्य मत वाले श्री कृष्ण जी की बहुत-सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत न होता तो श्री कृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होती !
महाभारत ग्रंथ के रचयिता भगवान् व्यास को यह नाम अत्यन्त प्रिय था। उन्होंने विभिन्न पात्रों के मुख से श्री कृष्ण के अनेक नामों का कीर्तन करवाया है। उन्हें माधव, कृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, जनार्दन, सात्वत, आर्षभ, वृषभेक्षण, अज, दामोदर, हृषिकेश, अधोक्षज, नारायण, पुरुषोत्तम, जिष्णु, अनन्त, गोविन्दादि अनेक नाम दिये हैं। परन्तु उन सब में श्री कृष्ण का योगेश्वर नाम सर्वोपरि लगा है। गीता की समाप्ति पर संजय के मुख से पाण्डवों की विजय का कारण श्री कृष्ण का योगेश्वर होना है। संजय ने स्पष्ट कहा है- यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः, तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्भुवा नीतिर्मतिर्मम । ऐसा प्रतीत होता है कि गीता का यह अन्तिम श्लोक गीता के प्रथम श्लोक का उत्तर है। यह सर्वविदित है कि गीता का पहला श्लोक धृतराष्ट्र का प्रश्न है- धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।
हे संजय ! धर्म-भूमि कुरुक्षेत्र में एकत्र होकर मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? यहाँ धृतराष्ट्र का संजय से ऐसा पूछना आवश्यक था, क्योंकि कुछ ही दिन पहले कूटनीतिज्ञ कणिक की सम्मति के आधार पर संजय को विराट् नगरी में पाण्डव-शिविर में भेजा गया था- ‘हे संजय ! तुम वहाँ जाना और पाण्डवों की धार्मिक भावना को उद्बुद्ध करके उन्हें युद्ध से विरत करना। इस कार्य के करने में तुम कुशल हो।’ राजा का आदेश पाकर संजय गए और उन्होंने संसार की नश्वरता और वैराग्य का ऐसा उपदेश दिया जिससे उसे निश्चय हो गया कि धर्मराज युधिष्ठिर युद्ध से विरत हो जाएँगे। लौटकर महाराज धृतराष्ट्र को यह पूर्ण विश्वास दिला दिया कि युद्ध न होगा और तुम्हारी गद्दी सुरक्षित रहेगी, परन्तु कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में अपने और पाण्डु के पुत्रों को युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुआ

Description

आर्यावर्त्त में राम और कृष्ण दो ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिन्हें राष्ट्रपुरुष और इतिहासपुरुष की दृष्टि से अद्वितीय कहा जा सकता है। राम मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं और श्री कृष्ण लीला-पुरुषोत्तम हैं। पुरुषोत्तम दोनों हैं। पुरुषोत्तम अर्थात् उत्तम पुरुष, अर्थात् आर्य। आर्यत्व की दृष्टि से जीवन को उत्तमता की पराकाष्ठा तक ले- जानेवाले ये दोनों ऐसे अनुकरणीय महापुरुष हैं, जिनसे युग-युगान्तर तक मानव-जाति प्रेरणा ग्रहण करती रहेगी। परन्तु इनकी स्तुति और भक्ति से ओतप्रोत मानव-हृदय ने अपनी कल्पनाशील बुद्धि के चमत्कार द्वारा इन दोनों ही महापुरुषों को मानवोत्तर से इस प्रकार मानवेतर बना दिया है कि तथाकथित आधुनिक बुद्धिवादी लोग इन दोनों ही इतिहास-पुरुषों को अनैतिहासिक कहने में अपनी आधुनिकता मानने लगे हैं। परन्तु भारतीय जन-मानस ने अपने हृदय के सिंहासन पर इन दोनों को इतने दृढ़ भाव से विराजमान किया है कि उसे अपने परिवार या स्वयं अपने निज के अस्तित्व से भी अधिक इन इतिहास-पुरुषों की ऐतिहासिक सत्यता पर आस्था है।
ये दोनों इतिहास-पुरुष महान् स्वप्नद्रष्टा भी थे। दोनों ने ही अपने स्वप्नों को अपने जीवनकाल में चरितार्थ करके दिखा दिया। सामान्य व्यक्ति महान् स्वप्न नहीं देखा करते। कभी उत्साह में आकर वैसा कर भी बैठें तो उनके स्वप्न उनकी अपनी सीमाओं के कारण और संसार की विपरीत परिस्थितियों के कारण केवल शेखचिल्ली के स्वप्न बनकर रह जाते हैं। पर इन दोनों महापुरुषों के जहाँ स्वप्न विराट् थे, वहाँ इनके कर्तृत्व भी विराट् थे

Additional information

Weight 387 g
Dimensions 22 × 14 × 2 cm

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